द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी के बालगीतों में प्रकृति चित्रण

  • डॉ. मधुबाला शर्मा

Abstract

बाल मन कौतूहल पूर्ण जब सूरज को देखता है, चाँद और तारों को देखता है, तो वाह! वाह! कह उठता है। वह जब चिडिय़ों को उड़ती देखता है, तो विस्मय से भर उठता है, सोचने लगता है - काश उसके भी पंख होते। काश ! वह भी उड़ सकता - तो कितना अच्छा होता - फूल, तितलियाँ, टहनियाँ, टोंटी से टपकता पानी, सब के साथ जीना चाहता है। गुब्बारों का रंग बिरंगा जमघट, उसे लुभाता है। बाल साहित्यकार निरकंर दवे सेवक कहते हैं कि - ”बच्चा क्या होता ह, इसे समझे बिना उसके स्वभाव को भी ठीक-ठाक नहीं समझा जा सकता। प्रत्येक बच्चा अपने जन्म से ही अपने आज में संपूर्ण एक स्वतंत्र मनुष्य होता है। देखने में वह कितना ही निर्बल, निस्सहाय और क्षमता रहित मालूम हो, पर उसमें वह शक्तियाँ विद्यमान रहती हैं, जो किसी भी पूर्ण विकसित मनुष्य में हो सकती हैं। माता-पिता का यह अभिमान कि उन्हांने उसे बनाया ह, एक ऐसा भ्रम है, जिससे बडा़ दूसरा और कोई भ्रम नहीं हो सकता। वह तो उसके निर्माण में उस संपूर्ण सृष्टि के द्वारा माध्यम के रूप में प्रयोग कर लिए जाते हैं, जिसका एक अंग होते हुए भी वह अपने आप में पूर्ण होता है।

Published
2020-07-15