राष्ट्रपिता महात्मागॉधी का दलितों के प्रति दृष्टिकोण एक दार्शनिक अध्ययन

  • अभय कुमार सेठ
  • प्रो. अखिलेश्वर प्रसाद दुबे

Abstract

विमर्श समकालीन भारतीय समाज, राजनीति, साहित्य एवं दर्शन का एक महत्वपूर्ण विमर्श है। दलित वे लोग जो समाज में मानसिक, आर्थिक, सामाजिक, राजैनतिक, सांस्कृतिक, रूप से जिसे प्रबुद्ध तथा मजबूत व्यक्तियों द्वारा दबाया, कुचला या उनके ऊपर नियमों को थोपा गया है। लोगों को दलित की सेवा दी गयी है। जैसा कि महात्मा गॉधी जी ने कहॉ था कि कोई भी समाज या राष्ट्र अपने एक अंग को अस्पृश्य या दलित बनाकर अपनी समूचित प्रगति नहीं कर सकता है। अतः दलित दृष्टिकोण न केवल दलितों के सशक्तिकरण एवं उनके विकास हेतु बल्कि पूरे समाज एवं राष्ट्र की प्रगति के लिये भी अपरिहार्य है। मगर आज दलित लोग अपने मूल्य उद्देश्यों से भटक चुके है। स्वयं वे दलितों के मसीहा डॉ. भीमराव अम्बेडकर के सिद्धांन्तों पर खरे नहीं उतरे जिसका फायदा ऊॅची जातियॉ उन्हें जाति मनमुटाव करके उनका फायदा वोट बैंक में बनाती है। ऐसे कई तथाकथित दलितवादी विचारक (जिसमें दलित एवं सर्वण दोनों सामिल है) महात्मागॉधी आदि राष्ट्रनायको ंद्वारा दलित मुक्ति मे दिये गये योगदानों की अनदेखी करते हुये उन्हें दलित विरोधी करार दे रहे है और उन्हें अपमानजनक विशेषणों से नबाजने में लेगे है। ऐसे में गॉधी जी के दलित-विमर्श को पुनः समग्रता में देखने की जरूरत है। जैसा की हम जानते है कि - ब्राहा्रणवाद जिसकी बजह से एक बडी आबादी को अछूत बनाकर पशु से भी बदतर स्थिति में रखा गया था। दलित स्त्री जाति का बाल विवाह, बाल-वैधत्य, वेश्यावृत्ती, देवदासी प्रथा आदि शोषण होता था और उन्हें शिक्षा और समाजिक समानता के अधिकारों से बंचित कर दिया गया था। गुलामी के समय अंग्रेजों ने भी इसका भरपूर लाभ उठाया और सम्राज्यवाद की स्थापना करने में कमयाब हो गये।

Published
2020-07-14