21 वी सदी में हिंदी साहित्य की उपादेयता: भाषिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक पहलू

  • डॉ. विनोद विश्वासराव पाटील

Abstract

भारत बहूभाषी देश है| हर एक प्रदेश/प्रांत की अपनी भाषा है| हर एक भाषा की अपनी बोलियाँ है| कहा जाता है की, 'चार कोस पर पानी बदले, आठ कोस पर बानी'| इस स्थिति में हर एक को अपनी मातृभाषा, प्रादेशिक भाषा का अभिमान होता है| अपने विचारों का आदान-प्रदान, आंतर-प्रादेशिक व्यवहार, व्यवसाय, लेन-देन, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक समृद्धि का आदान-प्रदान इन सबका निर्वाह किसी एक ऐसी भाषा द्वारा हो सकता है, जो देश में अधिक से अधिक लोग जानते हो| भारत में यह स्थान सिर्फ हिन्दी भाषा ले सकती है| राष्ट्रभाषा के अभाव में राष्ट्र को गूँगा ही माना जाएगा| इसलिए हिन्दी ही भारतीयों की 'जनवाणी' है| भारत की विविधता में एकता तथा 'राष्ट्रीय ऐक्य' के लिए हिन्दी भाषा का महत्वपूर्ण स्थान है| इक्कीसवीं सदी की अगर हम बात करें तो आज हिंदी वैश्विक स्तर पर बोली और समझी जाने वाली भाषा बन चुकी है| भारत वैश्विक बाजार का केन्द्र बनता जा रहा है, इसलिए भारत के सामाजिक एवं सांस्कृतिक पहलू हिंदी साहित्य की उपादेयता बढाने में सहायक बनते जा रहे है| भारत की इक्कीसवीं सदी में उपादेयता बढानी है तो हिंदी साहित्य के अधुनातन अभ्यास और अनुसंधान की तथा समाज प्रबोधन की आवश्यकता है|

Published
2021-07-15