संत कबीर एवं संत मगनीराम के काव्य में रहस्य-साधना

  • शतदल मंजरी

Abstract

भारतीय जीवन, दर्शन और साहित्य-साधना में रहस्य-साधना की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। जितने प्रकार की भी दार्शनिक चेतनाएँ उपलब्ध हैं, वे समस्त वस्तुतः रहस्य-साधना का ही अंग स्वीकारी जाती हैं।

       भक्ति-कालीन साहित्य की निर्गुणवादी काव्यधारा की दोनों शाखाओं(ज्ञान- मार्गी और प्रेम-मार्गी) का मूलाधार ही रहस्य-साधना को स्वीकारा जाता है। रहस्यवाद के दो रुप माने गए हैं --- साधनात्मक रहस्यवाद और भावनात्मक रहस्यवाद, इनमें से पहला स्वरूप विशुद्ध आध्यात्मिक साधना के अंतर्गत अद्वैतवादी क्रिया-प्रक्रिया में देखा जा सकता है, जबकि दूसरा भावनात्मक रहस्यवाद का स्वरूप काव्य का विषय बनकर अद्वैतवादी चेतना का ही दूसरा स्वरूप हो जाता है। इसी कारण, आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा था कि " साधना के क्षेत्र में जो अद्वैतवाद है, काव्य के क्षेत्र में वही रहस्यवाद है।" () काव्यात्मक या भावनात्मक रहस्यवाद वस्तुतः काव्यात्मक अद्वैत-साधना का ही दूसरा नाम है। रहस्यवादी का संबंध चाहे विशुद्ध अध्यात्म या अद्वैत-साधना से हो या फिर भाव-साधना से, वस्तुत: होता वह सत्य का ही अन्वेषक है।

   अतः, साधनात्मक एवं भावनात्मक संज्ञा के रहस्यवाद से जो तथ्य स्वीकार किए गए हैं, वह कबीर एवं मगनीराम की वाणी में स्पष्टतः पाये जाते हैं।

    अपने साधक और कवि दोनों रुपों के लक्ष्यों की ओर स्पष्ट इंगित करते हुए जहाँ कबीर ने कहा है कि ---

"लोग जाने यहु गीत है, यह तो ब्रह्म विचार।"()

वहीं संत मगनीराम कहते हैं ---

"ब्रह्म रुप जल अगम अपार, पूरन ब्रह्म कृपाल।"()

 स्पष्टतः, कवि द्वय अध्यात्मवादी चेतना से अनुप्राणित होकर परब्रह्म के बारे में जो कुछ अनुभव कर रहे थे, उसी को अपनी वाणी(कविता) द्वारा वे आम जनों को भी समझाना बुझाना चाहते थे।

 

Published
2021-07-02