कोलकाता की शाम
Abstract
आठ साल रहने पर भी मुझे कोलकाता की शाम एक स्वतंत्र अस्तित्व नहीं, दिन और रात के बीच बारीक फाँक सरीखी लगी। क्यों कि दफ्तर बंद होते न होते रात फिर आती, इसलिए शाम को मैं वहाँ तक खींचना चाहता हूँ, जहाँ तक कोलकाता में शाम के आयोजन चलते हैं। पूर्व की यह नियति है कि सुबह और शाम दौड़ कर पकड़े बिना नहीं मिलती और पकड़ने के बाद देर तक थामे बिना महसूस नहीं होती।
शरद या रवींद्र के नायक-नायिका की आँखों वाली शाम अब कहाँ रही, वह गृहस्थिन संध्या हो गई है, संबंधों के बिना अनर्थक और संबंधों के भी जाल के दो एक सिरे पकड़ने पर वह परिभाषित नहीं होती।